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Review Hindi

बदला रिव्ह्यु – अपेक्षित मोड़ पर चलती बदले की रोमांचक कहानी

Release Date: 08 Mar 2019 / Rated: U/A / 01hr 58min

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Sonal Pandya

यह थ्रिलर अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू के बीच रोचक टकराव से दशकों को एक मनोरंजक सफर पर ले जाती है।

कहा जाता है की बदला हमेशा ठंडे दिमाग से लेना चाहिए। सुजॉय घोष की बदला देखते वक़्त इस कहावत की याद ज़रूर आती है। २०१६ में आयी स्पैनिश फ़िल्म कॉन्ट्राटिएम्पो (दि इनविज़िबल गेस्ट) की रूपांतरण फ़िल्म बदला रोचक तरीकेसे कहानी के नायक को बदलते रहती है।

नैना सेठी (तापसी पन्नू) एक स्टार उद्योजक है जो इस समय हाऊस अरेस्ट में है। उस पर अपने प्रेमी अर्जुन (टोनी ल्यूक) के खून का इल्ज़ाम है। नैना बादल गुप्ता (अमिताभ बच्चन) नामक वकील को अपने केस को मज़बूत बनाने के लिए चुनती है ताकि उसकी निर्दोषता सिद्ध हो। इस दो घंटे की कहानी में मैंने कहा, उसने कहा इस तर्ज़ पर दोनों मुख्य किरदारों के बीच बातें चलती हैं। मूल स्पैनिश फ़िल्म में वकील की भूमिका एक महिला ने निभाई थी और आरोपी पुरुष था।

गुप्ता को सेठी के वर्जन को समझना है और उस तरीके से उसकी केस को मज़बूत करना है ताकि शक की सारी सुइयां सेठी से हठ कर किसी और संदिग्ध व्यक्ति पर मूड जाएंं।

दोनों किरदार जब पहली बार मिलते हैं तो उनके बीच बातें खुलने में थोड़ा समय लगता है। नैना एक तरफ थोड़ी सी अस्वस्थ और असुरक्षित महसूस करती है, वहीं बादल गुप्ता एक वकील के तौर पर खुद पर विश्वास रखता है। पर बहुत देर तक वो महज़ दर्शक बन कर रहता है, जो नैना की असंभव सी कहानी को सुनते रहता है के नैना को कैसे एक बंद कमरे में खून के जाल में किसीने फसाया है, जबकि और कोई संदिग्ध आदमी वहाँ नज़र ही नहीं आता।

यह एगथा ख्रिस्टि के किसी कहानी की तरह है। स्कॉटिश पर्वतों के बीच बसा हुआ ग्लेनमोर होटल, जहाँ खून होता है, यह ख्रिस्टि के किसी कहानी का ही हिस्सा लगता है। पर कोई हरक्यूल पोयरो यहाँ सबूत ढूंढने नहीं आता, बल्कि यहाँ नैना ने बताई हुयी कहानी के आधार पर सच को खोजना है, जो हो सकता है खुद को बचाने के लिए सिर्फ़ आधा सच बोल रही हो।

अब ये बच्चन के किरदार और हम दर्शकों का ज़िम्मा रह जाता है के हम झूठ से सच को और सच में छुपे झूठ को अलग करें।

घोष की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म कहानी (२०१२) की तुलना बदला से की जा सकती है। कहानी की नायिका विद्या बागची (विद्या बालन) भी नैना सेठी की तरह कहानी को तोड़ मरोड़ के बताती है ताकि वो सच तक पहुँच सके। पर कहानी फ़िल्म की तरह इस फ़िल्म में आते कई मोड़ आपको उतना अचंबित नहीं करते। अगर आपने कई मर्डर मिस्ट्री फ़िल्म्स देखे हैं और अगर आप अमेरिकन क्राइम सीरीज़ देखते हैं, तो शायद आपको पता चल जायेगा की कहानी कौनसा मोड़ ले सकती है।

पर लेखक निर्देशक ओरिओल पौलो की मूल कहानी को स्कॉटलैंड में बसा कर भारतीय रूप देने में निर्देशक सुजॉय घोष कामयाब रहे हैं। बदले की कहानी भाषा की सीमाओं के पार जाती है, भावनात्मक क्षण वैसे ही होते हैं जहाँ एक परिवार अपने प्रिय व्यक्ति के लिए इंसाफ चाहता है। पर भारतीय मूल के लोग किसी भी गैर व्यक्ति से हिंदी में बात करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं इस तरह की कल्पनाओं को अब विराम देना चाहिए।

पर संयोग ख़त्म नहीं होते और बारीकियों में ही सच छुपा है यह जानते हुये भी मध्यांतर के बाद यह बंधी हुई कहानी हलकीसी ढीली पड़ जाती है। पन्नू और बच्चन पिंक (२०१६) के बाद फिर एक बार मुवक्किल और वकील की भूमिका में साथ आये हैं। उनके दृश्य और संवाद फ़िल्म को सच के लिए लड़े जा रहे युद्ध का रूप देते हैं, जहाँ बादल हमेशा शक को परोसते रहता है और नैना हमेशा अपने आप को बचाते रहती है।

बाकि कलाकारों में टोनी ल्यूक, अमृता सिंह, तनवीर घनी और मानव कौल महत्वपूर्ण भूमिकाओं में फ्लैशबैक में दिखते रहते हैं। अमृता सिंह दुःखित माँ की भूमिका में जचती हैं जो इंसाफ के लिए राह देख रही है। पर मल्यालम अभिनेता टोनी ल्यूक हिंदी बोलते हुए अड़खड़ाते नज़र आते हैं और घोष की फ़िल्म में उतने जचते नहीं। साथ ही ब्रिटिश-एशियाई अभिनेता घनी भी अलग थलग लगते हैं।

पर चूँकि पूरी फ़िल्म ज़्यादातर पन्नू और बच्चन के बीच चलते रहती है, दोनों फ़िल्म का वज़न काफी हद्द तक अपने कंधों पर उठाते हैं। फ़िल्म मध्यांतर से पूर्व सटीक और गतिमान है, मगर मध्यांतर के बाद वो अपेक्षित रूप से खींचती जाती है। आखरी चंद मिनटों में ये फ़िल्म मूल स्पैनिश फ़िल्म से पूरी तरह हिंदी फ़िल्मों में ढल जाती है।

बदला मनोरंजक ज़रूर है पर अंततः प्रेडिक्टेबल भी। फ़िल्म आपको सच के इतने सारे वर्जन्स दिखाती है के आप कुछ थक से जाते हैं।

 

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