Sahil Bhalla
मुम्बई, 27 Jun 2019 22:00 IST
कुछ लोग कह सकते हैं के नोबलमेन एक अच्छी-अच्छी फिल्म है, पर फ़िल्म के ऊपरी सतह से और अंदर झांकें तो वैसा नहीं है।
वंदना कटारिया की पहली निर्देशकीय फ़िल्म नोबलमेन विलियम शेक्सपियर की द मर्चंट ऑफ़ वेनिस से प्रेरित है। इस फ़िल्म का अनुभव करना काफ़ी मुश्किल है और जैसे के कटारिया कहती हैं, इसे शूट करना भी उतना ही मुश्किल रहा है।
मसूरी के नोबल वैली हाय जैसे बड़े बोर्डिंग स्कुल में इस फ़िल्म की कहानी घटती है और छात्रों को परेशान किए जाने के गंभीर मुद्दे को ये फ़िल्म उठाती है। अपनी उभरती आयु में लड़के काफ़ी जोश में होते हैं। इस उम्र में उन्हें जो चाहिए वो पाने के लिए वो जिस हद तक जा सकते हैं, वो काफ़ी खतरनाक साबित हो सकता है।
१५०वे फाउंडर डे के उपलक्ष में द मर्चेंट ऑफ़ वेनिस नाटक की रचना यही फ़िल्म का केंद्रबिंदु है। १०वी कक्षा में पढ़ रहे शैय (अली हाजी) को ड्रामा टीचर मुरली (कुणाल कपूर) नाटक में बसानियो की भूमिका देता है।
बादल (शान ग्रोवर) एक प्रसिद्ध अभिनेता का बेटा है। जब उसे पता चलता है के शैय को पिया (मुस्कान जाफरी) के साथ चुना गया है, तो उसे शैय से जलन होती है। वो पिया को पाना चाहता है और इसलिए ये रोल मिलाने के लिए वो किसी भी हद तक जा सकता है। बादल स्कूल के स्पोर्ट्स कप्तान अर्जुन (मोहम्मद अली मीर) से मदद मांगता है। बादल, अर्जुन और उनके साथी स्कूल के मैदान पर दौड़ कर अपना वर्चस्व दर्शाते हैं।
यहाँ शैय को गंजु (हार्दिक ठक्कर) के रूप में एक दोस्त मिल गया है। शैय एक तरफ अपने लैंगिकता को लेकर उलझा हुआ है वहीं गंजु मोटापे से परेशान। दो अलग जगहों पर खड़े इन दोनों को भी कोई भी आसानी से अपना शिकार बना सकता है।
शैय विनम्र है, उसमे उदारता, दयालुपन, स्त्रीतत्व ऐसे कई गुण हैं। इसी वजह से वो गंजु और पिया के करीब आता है। पिया और गंजु भी अकेलेपन के शिकार रहे हैं। परेशान करनेवाले लड़के इन्ही दोनों को शैय से चुराना चाहते हैं।
कटारिया हमें बदमाशी और दादागिरी के लिए एक तीसरी प्रतिक्रिया का अनुभव कराती हैं, जो के शायद हमने देखि ना हो और वही फ़िल्म को और अधिक गंभीर बनाती है। खुद को नुकसान पहुंचाना और कानूनी कार्यवाही करना हमें पता हैं। पर यहाँ दादागिरी के खिलाफ तीसरी किस्म की प्रतिक्रिया दर्शायी गयी है जो और अधिक गंभीर है और इसीसे उत्तरार्ध में कई चीज़ों पर से परदा उठता है।
कटारिया इस तीसरे चीज़ के बारे में बताती हैं, "इस केस में एक मॉन्स्टर दूसरा मॉन्स्टर तैयार करता है। हिंसा हिंसा को जन्म देती है। जहाँ अच्छाई बुराई पर विजय तो पाती है, पर तभी जब वो खुद बुराई बन जाती है।"
नोबलमेन फ़िल्म में विचित्रता, लैंगिकता, होमोफोबिया को आप महसूस करते हैं। निर्देशिका तथा उनके लेखक — सोनिया बहल, सुनील ड्रेगो और खुद कटारिया — ने इस विषय को काफ़ी गंभीरता से और विचारपूर्वक दर्शकों के सामने लाया है। शैय को भले ही शांत रखा है, पर उसकी देहबोली से वो काफ़ी कुछ कह जाता है।
फ़िल्म में कटारिया कई बातें कैमरा के माध्यम से कहती हैं। अर्जुन और शैय के कई दृश्यों में कैमरा के माध्यम में दोनों को विचित्र तरीकेसे पास रखा गया है, जिसे हम सिर्फ़ देखते नहीं बल्कि महसूस भी करते हैं।
अर्जुन हमेशा हिंसा और क्रूरता से अपना वर्चस्व रखने का प्रयास करता है। एक दृश्य में अर्जुन के पिता उसपर गुस्सा हो रहे हैं और उसके बाद अर्जुन की दादागिरी और अधिक भयानक रूप लेती है। इस बदमाशी के कुछ दृश्य सामान्य दर्शकों को शायद उग्र लगें, पर फिर भी कटारिया ने उसे सिर्फ़ कहने की बजाय दर्शाना उचित समझा।
नोबलमेन में पीड़ित और अत्याचार करनेवाले दोनों पर हो रहे प्रभाव को दर्शाया गया है। यहाँ दयालुपन की कोई गुंजाईश नहीं। जब आप सोचते हैं के अत्याचार करनेवाले शायद अब दया कर दें, पर वैसा नहीं होता। कटारिया की कहानी ऐसे कई स्कूलों की दर्दनाक कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। कटारिया खुद लड़कियों की बोर्डिंग स्कूल में पढ़ी हैं।
जब शैय बदला लेने लगता है तब नोबलमेन और भी अधिक विदारक रूप ले लेता है। शैय पूरे तरीकेसे बदल जाता है। उसके बदले हुए रूप से किसी को भी अचंबा हो सकता है के इतने जल्दी कोई कैसे इतना बदल सकता है।
मोहम्मद अली मीर, कुणाल कपूर, हार्दिक ठक्कर, मुस्कान जाफरी और अली हाजी इन सभी की बेहतरीन अदाकारी नोबलमेन की जान है। कुणाल कपूर मुरली की भूमिका में पूरी तरह से खरे उतरे हैं। अपने सह कलाकार, जो अभी उतने प्रसिद्ध नहीं हैं, उन पर जरा भी हावी होने की कोशिश ना करते हुए उन्होंने अपने भूमिका को उचित न्याय दिया है। अली हाजी ने बेहतरीन काम किया है, खासकर जब उनपर अत्याचार हो रहे हैं। उनकी अदाकारी में वो खरापन देखा जा सकता है।
पार्श्वसंगीत का भी उल्लेख यहाँ होना ही चाहिए। फ़िल्म की गति और उसके अंदाज़ से पूरी तरह मेल रखते हुए दर्शकों को एक डरावना अनुभव देने में पार्श्वसंगीत कामयाब हुआ है। बोर्डिंग स्कूल का वातावरण भी असली लगता है। पर मज़ेदार बात ये है के फ़िल्म मसूरी के दो अलग बोर्डिंग स्कूल में शूट की गई है। कुछ जगहों पर कैमरावर्क काफ़ी बढ़िया है, पर कुछ जगहों पर हमें निराशा होती है। पूरी फ़िल्म को देखें तो कुछ दृश्य ऐसे भी हैं जहाँ वे दृश्य फ़िल्म के प्रभाव को कम करते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं के नोबलमेन एक अच्छी-अच्छी फ़िल्म है, पर फ़िल्म के ऊपरी सतह से और अंदर झांकें तो वैसा नहीं है। नोबलमेन ज़रूर एक देखनेलायक फ़िल्म है। पर कुछ लोगों को शायद ये पसंद ना आए, क्योंकि निर्देशक ने जिन चीज़ों को कहने भर से काम हो पाता उन्हें भी दर्शाया है। यह फ़िल्म सीधे ओटीटी प्लैटफॉर्म्स पर दर्शाई नहीं जा रही इसकी भी तारीफ होनी चाहिए। १ घंटे ४९ मिनिट की यह फ़िल्म कहीं भी खींची हुई नहीं लगती।
फ़िल्म के ग्राफिक शैली को देखते हुए ये निश्चित है के नोबलमेन आपके आम फ़िल्मों की तरह होने का दावा नहीं करती और जो अस्वस्थ अनुभव के लिए तैयार होते हैं ऐसे दर्शकों के लिए इसे बनाया गया है। यह फ़िल्म आपको विचार करने पर मजबूर करती है। कटारिया अपने दर्शकों को इस विषय के बारे में गंभीरता से सोचने और उस पर चर्चा करने पर मजबूर करती हैं।
नोबलमेन इंडिया हैबिटैट सेंटर में हुए १४वे हैबिटैट फ़िल्म फेस्टिवल में २२ मई २०१९ को दर्शाई गई थी।
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