
Shriram Iyengar
मुम्बई, 27 Jul 2021 14:31 IST
लक्ष्मण उतेकर की यह फ़िल्म मुख्य कलाकारों के ज़बरदस्त अभिनय के कारण अधिक मज़ेदार लगती है, जो के फ़िल्म की साधारण प्रस्तुति और कुछ खामियों को आसानीसे ढक देती हैं।

माँ ये एक उलझी हुई संज्ञा है। माँ जितना आप से तिरस्कार करेगी, उतना ही प्यार वो बरसाएगी। और उसका भी एक अच्छा खासा कारण होगा।
फ़िल्म मिमी में निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने माँ बनने के इस सफर को दर्शाया है। पर ऐसा करते हुए सामाजिक संदेश देने के चक्कर में कुछ जगहों पर कहानी और किरदारों की गहराई नहीं मिलती। फिर भी, अंत में इसे मनोरंजक कहानी कहा जा सकता है, जिसकी वजह अगर बताएं तो पंकज त्रिपाठी और क्रिती सैनन का ज़बरदस्त अभिनय है।
कहानी की शुरुवात होती है जॉन (एडन व्हायटोक) और समर (एवलिन एडवर्ड्स) नामक अमेरिकन दम्पति से। भारत में ये उन्हें सबसे उचित लगे ऐसी सरोगेट माँ ढूंढ रहे हैं। उनकी कल्पना सुनकर उनका ड्राइवर भानु (त्रिपाठी) उन्हें मिमी (सैनन) के पास ले जाता है। मिमी एक छोटे गाँव से है और उसका सपना है के वो कभी फ़िल्म एक्ट्रेस बने।
मिमी को पैसे का लालच मिलते ही वो खुश हो जाती है, क्योंकि उसका बॉलीवुड का सपना उससे साकार हो सकेगा ऐसा उसे लगता है। पर माँ बनना और सरोगसी इतनी आसान चीज़ें नहीं हैं। जब मामला हाथ से छूटने लगता है, तो भानु, मिमी और बाकि लोग खुद के ही प्लान में फसते जाते हैं।
माँ का त्याग, संघर्ष और महत्त्व जताने के लिए कहानी में काफी मेलोड्रामा डाला गया है। फ़िल्म से अपना संदेश देते हुए निर्देशक उतेकर ने कोई परहेज नहीं रखा है। उस चक्कर में उन्होंने सरोगसी जैसे संवेदनशील विषय के लिए जिस बारीकी की आवश्यकता थी, उसे कहीं खो दिया है। सरोगसी की मुश्किलातें, उसके कानूनी मुश्किलें और उसके चलते धोखाधड़ी और अन्याय के मुद्दे इन सभी बातों पर गौर नहीं किया गया है।
पर फ़िल्म इन विषयों को सामने लाने के लिए नहीं बनाई गयी है। मिमी में उतेकर की कल्पना में माँ बनना और होना क्या है और क्यों माँ सबसे ऊपर होती है, ये अधिक महत्वपूर्ण है। उदाहरण के तौर पर सरोगेट बच्चे को जन्म देने के बाद तुरंत ही मिमी अपने सपने को त्याग देती है। इस पर विश्वास करना मुश्किल है, पर भारत में ऐसा होना पूरी तरह असंभव भी नहीं कहा जा सकता।
कहानी के इन कुछ खामियों को कलाकारों का ज़बरदस्त अभिनय भूलने के लिए मजबूर कर देता है। सैनन ने कई भावनिक आंदोलनों को दर्शाया है, पर मज़ेदार मिमी के रूप में वे अधिक भाति हैं। मस्तीखोर, महत्वकांशी, हर पल खुश रहनेवाली मिमी को फ़िल्म के शुरुवात में ही उन्होंने प्रस्थापित कर दिया है।
पर पंकज त्रिपाठी के सामने उनका जलवा भी थोड़ा फीका पड़ जाता है। त्रिपाठी बेहद सहजता से अपनी भूमिका निभाते हैं। उनके अभिनय को देखते हुए उनके किरदार से अलग उन्हें देखना मुश्किल हो जाता है। वे केवल एक वाक्य या सिर्फ सिर हिलाकर भी किसी दृश्य में अपनी छाप छोड़ सकते हैं।
सई ताम्हणकर ने कहानी को एक और पहलु दिया है। उनका किरदार शमा, एक समझदार सहेली है जो फ़िल्म का संतुलन बनाए रखती है। मनोज पाहवा और सुप्रिया पाठक के साथ उन्हें भी उतना ही स्क्रीन टाइम मिला है। दुर्भाग्यवश, इन तीनो कलाकारों को भावनिक आधार देने के अलावा और अधिक काम नहीं है।
उतेकर की फ़िल्म में खामियां तो हैं। मिमी के घरवाले बच्चे को स्वीकार लेते हैं, भानु उसका काम ख़तम होने के बाद भी अपनी दोस्ती को निभाते रहता है, वो भी अंत तक, ये सारि बातें किसी भी स्पष्टीकरण के बिना आती हैं। सरोगसी को पूरा करने के लिए कपल को जिस जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है उस बात को भी दरकिनार कर दिया गया है। जिन भावनिक कश्मकश से उन्हें गुजरना पड़ता है, उस पर भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। कहानी में नाटकीयता बढ़ाते हुए कुछ वास्तविक चीज़ों को पीछे छोड़ दिया गया है। पर सभी कलाकारों का ज़बरदस्त अभिनय फ़िल्म को मनोरंजक बनाता है।
मिमी कोई वास्तवदर्शी, प्रखर सामाजिक संदेश देनेवाली फ़िल्म नहीं है। ये एक मनोरंजक, मज़ेदार, नाटकीय और जीवनदर्शी फ़िल्म है। उतेकर अपनी दूसरी फ़िल्म के साथ मुख्यधारा के दायरे में रह कर भी अलग विषय को बखूबी लेकर आये हैं। यही इस फ़िल्म की विशेषता है।
मिमी नेटफ्लिक्स और जिओ सिनेमा पर उपलब्ध है।
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