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चोक्ड रिव्ह्यु – सामाजिक से ज़्यादा पारिवारिक फ़िल्म के रूप में अधिक प्रभावी

Release Date: 05 Jun 2020 / 01hr 54min

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Cinestaan Rating

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Suyog Zore

फ़िल्म में उस समय की कहानी दर्शायी गयी है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में विमुद्रीकरण याने के डिमॉनीटाइजेशन लागू किया था। इसी विमुद्रीकरण को केंद्र में रखते हुए ये कहानी बुनी गयी है।

चोक्ड के दो अर्थ हैं। एक है के मिले हुए मौके पर कामयाब न हो पाना, जो के आत्मविश्वास की कमी की वजह से हो सकता है। दूसरा है किसी रास्ते में रूकावट बनना। अनुराग कश्यप की इस फ़िल्म को ये दोनों अर्थ जचते हैं।

ये कहानी है सरिता पिल्लई (सैयमी खेर) की, जो अपनी नीरस ज़िंदगी में घुटन महसूस कर रही है। वो एक सरकारी बैंक कर्मचारी है और तीन लोगों के उसके परिवार को संभालने की ज़िम्मेदारी उस अकेले पर ही है। उसका पति सुशांत (रोशन मैथ्यू) संगीतकार है, जो के फ़िलहाल बेरोज़गार है। दोनों का एक बेटा भी है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बोझ का असर पति-पत्नी के रिश्ते पर भी हो रहा है, क्योंकि सुशांत एक के बाद एक नौकरी छोड़ते रहता है।

मुम्बई के एक साधारण इलाके में यह परिवार रहता है। अमृता सुभाष, राजश्री देशपांडे और उदय नेने उनके पडोसी की भूमिका में हैं, जो के शोर शराबा पसंद बताये गए हैं। चोक्ड की कहानी अक्टूबर २०१६ से शुरू होती है, याने के उस दिन से एक महीने पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में विमुद्रीकरण लागू किया था। विमुद्रीकरण इस कहानी का मुख्य भाग है।

शादी का धीरे धीरे टूटते जाना और व्यावसायिक गायिका बनने के मौके को गंवाने की निराशा सरिता को हताश कर देते हैं। पर जैसा के कहा जाता है के अँधेरे में प्रकाश की कोई किरण नज़र आ ही जाती है, वैसे ही सरिता को किचन के चोक्ड याने के जमे हुए सिंक से एक आशा की किरण मिल जाती है।

बिल्डिंग के ड्रेनेज का इस्तेमाल कोई अपनी कैश छुपाने के लिए कर रहा है। सरिता को इसमें खुद की निराशा दूर करने का रास्ता नज़र आता है। पिल्लई परिवार के लिए आखिरकार चीज़ें बदलनी लगती हैं। सरिता वो सारी चीज़ें खरीदने लगती है जो के वो हमेशा खरीदना चाहती थी। जैसे के तकिये, नया क्रॉकरी सेट, वगैरह। पर ८ नवंबर २०१६ को शाम ८ बजे उसका नसीब साथ छोड़ने लगता है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिमॉनीटाइजेशन का ऐतिहासिक निर्णय ज़ाहिर करते हैं।

अनुराग कश्यप इंसान के गहरे रंगों को दर्शाना पसंद करते हैं और यहाँ भी वे एक स्त्री पात्र के ज़रिये अलग पहलुओं को दर्शाते हैं, जहाँ सरिता अपने ही तत्वों से जूझ रही है। उन्होंने डिमॉनीटाइजेशन को फ़िल्म के मध्य में लाया है। तब तक ये कहानी दर्शनी रूप से पारिवारिक कहानी लगती है, जो के एक शादीशुदा जोड़ी की कहानी है, जो भावनिक और आर्थिक उथल पथल से गुज़र रही है।

सरिता का एकलौता सहारा है उसकी पड़ोसन शर्वनी, जिसे अमृता सुभाष ने बड़ी खूबी से निभाया है। सरिता शर्वनी के पास अपना सारा दुखड़ा बताती रहती है। हालाँकि इन दृश्यों को देखते हुए मज़ा आता है, पर ये सवाल भी उठता है के इन दृश्यों से कहानी को कितना लाभ हो रहा है।

पर जैसे ही मोदी डिमॉनीटाइजेशन की घोषणा करते हैं, फ़िल्म का रुख बदल जाता है। कश्यप और लेखक निहित भावे ने इसे होशियारी से इस्तेमाल किया है। डिमॉनीटाइजेशन से जिनके पास अवैध पैसा है, उन्हें नुकसान होना चाहिए था, पर उसका सीधा प्रभाव भारत के गरीब तबके के लोगों पर अधिक हुआ।

पर जब इस निर्णय की घोषणा की जाती है, तब सुशांत और सोसायटी के बाकी भोले भाले लोग इसका खूब जश्न मनाते हैं। इसी दृश्य के साथ न्यूज़ में ये भी दिखाया जाता है के कैसे लोग अपना पैसा निकालने के लिए घंटों कतार में खड़े हैं।

सैयमी खेर ने इससे पूर्व एक हिंदी और एक मराठी फ़िल्म में काम किया है। पर यहाँ उन्हें मुख्य भूमिका मिली है। उनका किरदार एक मध्यम उम्र की मध्यमवर्ग महिला का है, जिसमे ग्लैमर देखने को भी नहीं मिलता। पूरी फ़िल्म का दारोमदार उन्ही के कंधों पर है और रोशन मैथ्यू सहयोगी कलाकार के रूप में कहानी और फ़िल्म में भी नज़र आते हैं।

सरिता के स्वभाव में हो रहे बदलाव को खेर ने बड़ी खूबी से दर्शाया है। सिंक से आनेवाले पैसों के साथ धीरे धीरे वो अधिक आश्वासक बनती है और रिश्ते में वर्चस्व भी बनाने लगती है।

रोशन मैथ्यू ने सूझबूझ के साथ अपना किरदार निभाया है। उनका किरदार एक ऐसे पति का है जो अपनी ही निराशा से जूझ रहा है और पत्नी के बढ़ते वर्चस्व के सामने कमज़ोर पड़ता जाता है। डिमॉनीटाइजेशन की घोषणा के बाद वो अपने करिअर की निराशा को मिटाने के लिए खूब नाचता भी है। इसके पीछे शायद ये भी कारण है के अगर वो पैसा कमा नहीं पा रहा है, तो लोगों के पैसे का हो रहा नुकसान देख कर ही वो खुश हो रहा है।

चोक्ड की कास्टिंग तो बहुत अच्छी है, पर फ़िल्म स्क्रिप्टिंग के मामले में फसी है। फ़िल्म के पूर्वार्ध में ही इसकी धीमी शुरुवात आपके धैर्य की परीक्षा लेती है। उत्तरार्ध में भी डिमॉनीटाइजेशन का असर दिखाने के बाद फ़िल्म फिरसे धीमी हो जाती है। साथ ही क्लाइमैक्स से पहले जो भावनिक मूड लाने की कोशिश की गयी है, वो उतनी असरदार नहीं है जितना के निर्माता-निर्देशक ने सोचा होगा। हालाँकि आखरी १० मिनिट में फ़िल्म फिर से ट्रैक पर आ जाती है।

फ़िल्म के माहौल का हलका फुलका होना कश्यप फैन्स के लिए निराशाजनक बात हो सकती है। डिमॉनीटाइजेशन जैसे गंभीर विषय के होने के बावजूद फ़िल्म गहरे शैली में दर्शायी नहीं गयी है। ऐसा लगता है के ऐसे सामाजिक और राजनीतिक विषय पर एक दमदार फ़िल्म बनाने का मौका उन्होंने गँवा दिया हो। फ़िल्म सिर्फ़ विषय के सतह को छूती है और विमुद्रीकरण के समय में पति-पत्नी के संबंधों पर बनाई गयी एक ठीक ठाक चलचित्र बन कर रह जाती है।

 

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